शेर शाह सूरी
Sher Shah Suri
शेरशाह सूरी
नाम व पैदाइश
शेरशाह सूरी का असल नाम फ़रीद ख़ान था । वह 1473 ई ० में हिन्दुस्तान के एक इलाके " हिसार " में पैदा हुआ । इलाका रोह में पठानों का एक कबीला आबाद था । उस कबीले का नाम “ सूर " था । शेरशाह उसी कबीले से सम्बंध रखता था । यही वजह है कि बड़ा होकर जब वह हिन्दुस्तान का हुकुमरान बना तो उसने अपने नाम के आगे सूरी शब्द बढ़ा दिया । बिल्कुल उसी तरह जैसे लोग अपने नाम के साथ देहलवी , लाहौरी , मुलतानी या चिश्ती , कादरी वगैरा का शब्द लगाते हैं ताकि उनकी पहचान उनके वतन या कबीले के नाम से हो । शेरशाह उसका असल नाम नहीं बल्कि लकब था । सूबा बिहार के हाकिम सुलतान मुहम्मद ने उसकी बेपनाह बहादुरी को देखकर उसे शेरशाह का ख़िताब दिया था । फिर जब वह बादशाह बना तो शेर
बादशाह या शेरशाह कहलाया और शेरशाह के साथ उसने अपने कबीले के नाम ( सूर ) की मुनासिबत से " सूरी " का शब्द भी लगा दिया ।
शेरशाह की जिन्दगी के हालात
शेरशाह के पिता का नाम हसन ख़ान था । वह काफ़ी गरीब आदमी था । अपने पुर्वजों के वतन “ हिसार " में उसे रोजगार के मुआमले में कामयाबी न हुई और अपने बीवी - बच्चों को पालने के लिए उसे कोई मुनासिब काम न मिला । फ़ाकों की नौबत आई तो उसने भूखा मरने की बजाए वतन को छोड़ देने का फैसला किया । उन दिनों हिन्दुस्तान पर पठान कबीले के एक ख़ानदान की हुकूमत थी जो तारीख़ में लोधी ख़ानदान के नाम से मशहूर है । ( उस ख़ानदान में सुलतान इब्राहीम लोधी ने बहुत शोहरत पाई और उसकी वजह इब्राहीम लोधी का मुगल बादशाह जहीरुद्दीन बाबर की फ़ौज से जंगी महाज़ आराई है । ) लोधी ख़ानदान का सुलतान सिकन्दर लोधी हुकुमरान था और दिल्ली राजधानी थी । चूंकि उस ज़माने में दिल्ली एक बड़ा शहर और मुल्क की राजधानी थी , इसलिए अकसर लोग रोजगार की तलाश में इसी शहर का रुख किया करते थे । चुनांचे शेरशाह का बाप हसन ख़ान भी रोजगार के सिलसिले में दिल्ली पहुंचा । लेकिन बदकिस्मती से उसे वहां भी कोई नौकरी न मिली । हसन ख़ान कुछ समय तक दिल्ली में नौकरी की तलाश में रहा । उस दौर में नौकरी के दो बड़े साधन थे । पहला फ़ौज , दूसरा कोई और सरकारी महकमा । हसन ख़ान एक बहादुर पठान और सिपाहियाना
जौक का मालिक था । दूसरे सरकारी महकमों में उसे कोई दिलचस्पी न थी । न ही वह उनके लिए मुनासिब था । उसे सिर्फ़ फ़ौज में ही नौकरी मिल सकती थी । लेकिन किस्मत ने दिल्ली में उसका साथ न दिया । गरीबी के कारण वह ज्यादा देर बेरोज़गार नहीं रहना चाहता था । उन दिनों जौनपुर का हाकिम ( गवर्नर ) जमाल ख़ान था । जमाल खान सुलतान सिकन्दर लोधी का एक ख़ास और भरोसेमन्द अमीर था और उसे जौनपुर का गवर्नर सिकन्दर लोधी ने ही नियुक्त किया था । हसन ख़ान मायूस होकर दिल्ली से निकला और जौनपुर जा पहुंचा
शेरशाह की तालीम व तरबियत
हसन ख़ान अमीर जमाल ख़ान का आज्ञाकारी और ख़ास आदमी था । इसलिए जमाल ख़ान ने उसके बेटे शेरशाह के लिए उच्च तालीम व तरबियत का इंतिज़ाम किया । उस ज़माने में पठानों में लिखने - पढ़ने का इतना शौक नहीं था । वे जंगजू और लड़ाका थे और फ़ौज में ही अपनी हिम्मत व बहादुरी और जहानत का बेहतरीन इस्तेमाल करने में फ़न ( गर्व ) महसूस करते थे
शेरशाह जून 1528 ई ० में अपनी जागीरों पर पहुंचा । वह अप्रेल 1527 ई ० से जून 1528 ई ० तक मुगल लश्कर में रहा और इस मुद्दत में उसने अन्दाज़ा लगा लिया था कि मुगलों की हुकूमत ख़त्म करना ज्यादा मुश्किल नहीं है । सहसराम पहुंचकर उसे ख़याल आया कि इस तरह बाबर के लश्कर से निकल आने पर उसे भगोड़ा और मुगल बादशाह का नाफरमान समझा जा सकता हैं।
चौसा की जंग
हुमायूं अभी गौड़ में ही था कि उसके भाइयों ने उसकी गैर मौजूदगी से फ़ायदा उठाते हुए बगावत कर दी । उसके छोटे भाई हिन्दाल मिर्जा ने आगरा पहुंच कर हुमायूं के नायब शेख बहलोल को कत्ल करा दिया और तख्त पर कब्ज़ा करके अपनी बादशाही का ऐलान कर दिया । हुमायूं को ख़बर मिली तो वह बहुत परेशान हुआ । 1539 ई ० का बरसात का मौसम शुरू हो चुका था । हुमायूं तुरन्त आगरा पहुंचने के लिए बंगाल से रवाना हुआ लेकिन तूफ़ानी बारिशों और छूत की बीमारियों से सिपाही मरने लगे । शेरशाह को मुगल फौज की कमजोरी का पता चला तो वह अपनी फ़ौज लेकर तेजी से हुमायूं की तरफ़ बढ़ा और चौसा के स्थान पर एक तंग जगह पर हुमायूं का रास्ता रोक लिया । रास्ता इतना तंग था कि हुमायूं की फ़ौज के लिए आगे बढ़ना नामुमकिन हो गया । तीन महीने तक शेरशाह की फ़ौज ने हुमायूं के लश्कर की सख़्त नाकाबन्दी करके छापामार जंग में मुगल लश्कर को बहुत नुकसान पहुंचाया । फिर शेरशाह ने एक जंगी चाल चली और हुमायूं को पैगाम भेजा कि " अगर हुमायूं उसे बिहार से गढ़ी तक का इलाका दे दे तो वह और कोई मांग नहीं करेगा और हमेशा हुमायूं का फ़रमांबरदार और वफ़ादार रहेगा । " हुमायूं अपने भाइयों की बगावत से इतना परेशान था कि उसने मजबूर हो कर शेरशाह से सुलह कर ली और अपनी फ़ौज को लेकर दरिया के किनारे - किनारे सफ़र करने लगा । रास्ते में मुगल फ़ौज ने एक रात पड़ाव किया तो शेरशाह ने दरिया - ए - चौसा ( दरिया - ए - गंगा की एक शाख ) का वह पुल तोड़
दिया जो मुगल सिपाहियों ने दरिया पार करने के लिए तैयार किया था और रात के अंधेरे में मुगल लश्कर पर हमला कर दिया सुबह तक बेशुमार मुगल सिपाही मारे गए । दरिया पार करने के लिए हुमायूं और उसकी फ़ौज ने घोड़े दरिया में डाल दिए तो शेरशाह की फ़ौज न उनपर तीर और गोले बरसाए , इस तरह एक ही दिन में हुमायूं के तकरीबन आठ हजार सिपाही मारे गए । हुमायूं घोड़े से दरिया में गिर पड़ा और एक सक्का (भिश्ती) ने उसकी जान बचाई । यह आदमी इतिहास में निज़ाम सक्का के नाम से मशहूर हुआ बाद में हुमायूं ने उसे एक दिन के लिए हिन्दुस्तान का बादशाह भी बनाया था । यह जंग जून 1539 ई ० में हुई और इसमें हुमायूं को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा वह बड़ी मुश्किल से आगरा पहुंच सका था ।
शेरशाह सूरी का मक़बरा
उस दिन 22 मई 1545 ई ० मृत्यु हो गई उसके बाद उसे सहसराम ( बिहार ) में दफ़नाया गया ।
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