जब एक खटिया के लिए तरस गया था अंतिम मुग़ल बादशाह
कितना है बदनसीब ' ज़फर ' दफ्न के लिए , दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कू - ए - यार में ।
1858 में खींची गई बहादुरशाह जफ़र की संभवत
इकलौती तस्वीर फोटो साभार- द ब्रिटिश लाइब्रेरी
ये पंक्तियां अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह द्वितीय द्वारा लिखी एक मशहूर ग़ज़ल की हैं । जिस समय उन्होंने ये पंक्तियां लिखी होंगी , उस समय शायद उन्हें यह एहसास भी नहीं होगा कि भविष्य में ये हक़ीक़त में बदलने वाली हैं । जब 1837 में बहादुरशाह द्वितीय दिल्ली के लाल किले के तख्त़ पर बैठे तो न तो उनके पास हुकूमत करने के लिए कोई इलाका था और न कोई रुतबा । इलाके का आखिरी टुकड़ा तो साठ - सत्तर बरस पहले ही उनके खानदान के कब्जे़ से निकल चुका था । अब तो उनकी सत्ता सिर्फ दिल्ली के लाल किले तक सीमित थी और उनकी गुज़र - बसर अंग्रेजों से मिलने वाली पेंशन से होती थी । उनका तख़ल्लुस था ‘ ज़फ़र ' , जिसका मतलब था विजय , कामयाबी । लेकिन मुग़लों की विजयों और कामयाबियों के किस्से तो डेढ़ सौ साल पीछे छूट गए थे । अब तो बाक़ी बचा था , पराजय और अपमान का गर्दगुबार , जिसमें मुग़लिया वैभव खो गया था । इसके बावजूद उस समय हिंदुस्तान की जनता के दिल में मुग़ल वंश के इस वारिस के प्रति सम्मान का भाव बाक़ी था । इसलिए जब 1857 का महासंग्राम हुआ तो विद्रोहियों ने दिल्ली आकर बहादुरशाह को अपना नेता माना , पर बूढ़े बहादुरशाह में न हौसला था और न वह क़ाबिलियत । जल्दी ही अंग्रेज फ़ौजों ने दिल्ली से विद्रोहियों को भगा दिया और मज़बूर बहादुरशाह को लाल किले से भागकर दिल्ली में ही हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी । अंग्रेजों की घुड़सवार सेना का कमांडर हडसन , बहादुरशाह को पकड़ने और राजपरिवार को नेस्तनाबूद करने के लिए बेताब था ।
उसने हुमायूं के मक़बरे को घेर लिया और तब मजबूर होकर बहादुरशाह और उनके बेटों को मक़बरे से बाहर आना पड़ा । हडसन अपनी डायरी में लिखता है , ' बादशाह ने को मकबरे के पास की कुछ पुरानी इमारतों में छुपा लिया था । जब वह बाहर निकला तो दिल्ली के बादशाह के रूप में नहीं , बल्कि चेहरे को एक गंदे कपड़े से ढंके हुए अपमानित बेचारे के रूप में बाहर आया । ' उनके साथ उनके परिवार को भी बंदी बना लिया गया । बहादुरशाह को एक पालकी पर बैठाकर लाल किले भेज दिया गया । उनके बेटों को भी एक अलग वाहन पर बैठाकर लाल किले को रवाना किया गया , लेकिन रास्ते में ही उन्हें गोली मार दी गई । हडसन ने लाल किले से लूटे गए सामान में से दो तलवारें चुनीं । एक पर लिखा था ' नादिरशाह ' और दूसरी पर जहांगीर ' । एक तो उसने अपने लिए रखी और दूसरी तलवार उसने इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को भेंट देने के लिए रख ली । हडसन अपनी डायरी में एक स्थान पर लिखता है , ' चौबीस घंटे के भीतर हमने तैमूर वंश के मुख्य सदस्यों को खत्म कर दिया ..... वास्तव में मेरी इच्छा उन्हें फांसी पर लटकाने की थी । ' तीसरे बेटे जवां बख़्त को छोड़ दिया गया , क्योंकि उसके खिलाफ़ कुछ सिद्ध नहीं हुआ , किंतु उसे दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया । यह वही जवां बख्त़ था जिसके विवाह के समय उस जमाने के मशहूर शायरों मिर्जा ग़ालिब और इब्राहीम ज़ौक़ में सेहरा पढ़ने की होड़ लगी थी ।
लाल किले में चले एक संक्षिप्त मुक़दमे के बाद बहादुरशाह को भारत से निष्कासित कर सपरिवार रंगून भेजने का फ़ैसला हुआ । अब बहादुरशाह और उनके परिवार की दिल्ली से रंगून की कठिन यात्रा शुरू हुई । दिल्ली से कलकत्ता तक की यात्रा घोड़ा - गाड़ियों और पालकियों से होनी था । आदेश थे कि बहादुरशाह को ज़मीन पर ही सोने दिया जाए । बहादुरशाह ने मार्ग में अपने रक्षक अधिकारी से केवल एक निवेदन किया था कि उन्हें सोने के लिए खाट मिल जाए तो बेहतर रहेगा।
पता नहीं बहादुरशाह ज़फ़र ' को सोने के लिए खाट मिली या नहीं , पर यह जरूर है कि जब 7 नवम्बर 1862 को रंगून के कैदखाने में उनकी मृत्यु हुई तो पास में उन्हें दफ़ना दिया गया । इतने बरस तक जब उनके अवशेषों को भारत में लाकर नहीं दफनाया गया और कोई स्मारक उनके लिए नहीं बनवाया गया तो
किसी शायर ने इस हालत पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए मरहूम बहादुरशाह को सलाह दे डाली कि जनाब , दिल्ली में ज़मीनें इतनी महंगी हो गई हैं कि आपको दो ग़ज़ ज़मीन नहीं दी जा सकती दिल्ली में आके रहने की ख़्वाहिश न करें अब , रंगून में पड़े रहें अपने मज़ार में । कह दो ज़फर से दिल्ली के इस कू - ए - यार में , दो ग़ज़ ज़मीन मिलती है सत्तर हज़ार में ।
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